Important Notice:- This Ravish Katha has been picked up from Face-Book & it belongs to Sh Yashark Pandey
हमारे यहाँ कई महीनों से एनडीटीवी नहीं आ रहा था। पूरे बनारस शहर के केवल एक केबल ऑपरेटर की कुछ तकनीकी खामियां थीं मगर इसको भी एक दिन राजनीतिक रंग दिया गया और बैनर-फैनर लगा कर कहा गया कि सरकार जानबूझकर एनडीटीवी का प्रसारण रोकना चाहती है। आखिरकार नवरात्रि की नवमी तिथि को अचानक से चैनल चालू हो गया था तब से प्रसारण बाधित नहीं हुआ। मैं बता दूँ कि मैं रवीश कुमार को बड़े मन से देखता हूँ। उसका यूँ सधे अंदाज़ में सरल हिंदी में किसी मुद्दे का माहौल बनाना फिर सबसे ज्यादा ‘पीड़ित’ पैनलिस्ट से शुरुआत करना। जनता की मानसिकता को ध्यान में रखते हुए आरंभ में शिक्षाप्रद प्रश्न पूछना। उसके बाद धीरे धीरे एजेंडा सेटिंग करना। विपरीत मानसिकता वाले पैनलिस्ट को ‘नहीं नहीं ऐसा नहीं होता…क्या बात कर रहे हैं सर’ कह कर रोकना टोकना और जहाँ रवीश बाबू फंस गए वहाँ भीनी सी मुस्कान के साथ प्राइम टाइम खतम कर देना। वल्लाह क्या अदा है इस व्यक्ति में! एनडीटीवी पर व्यर्थ के मुद्दे उठाये ही नहीं जाते। मुद्दे वही उठाये जाते हैं और उनका प्रस्तुतिकरण इस तरह किया जाता है जिससे एक आम नागरिक के मन में प्रश्न उठे कि ‘ये हो क्या रहा है इस देश में?’ फिर चाहे वो बीफ एक्सपोर्ट का मामला हो, प्रदूषण या फिर रक्षा सौदों में दलाली। यहाँ फेसबुक पर रवीश कुमार पर मुझसे भी बड़े बड़े एक्सपर्ट्स हैं इसमें कोई शक नहीं। इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कहूँगा।
बचपन में हमारे स्कूल में जर्नलिज़्म पर एक वर्कशॉप हुई थी। उसमें देश के बड़े बड़े जर्नलिस्ट आये थे। उस वर्कशॉप की फीस 400 रुपए थी। पन्द्रह साल पहले 400 रुपये बहुत ज्यादा हुआ करते थे इसलिए पिताजी ने साफ़ मना कर दिया था। मुझे दुःख तो बहुत हुआ था। किंतु इसका असर ये हुआ कि मैं अखबार मैगज़ीन और ज्यादा तन्मयता से पढ़ने लगा था क्योंकि लिखना मेरा शौक था और लिखने के लिए तरह तरह की चीजें पढ़ना जरूरी था। उस जमाने में ढाई रुपये के द हिन्दू में शशि थरूर का कॉलम निकलता था जो मुझे बहुत पसन्द था।
मुझे वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा निर्मित साहित्य के अड्डे मसलन किताबें, मैगज़ीन अखबार इत्यादि शुरू से ही पसन्द हैं। ये रोमांचक होते हैं, ज्ञानवर्द्धक होते हैं; धीरे से आपके मानस पटल पर ऐसी छाप छोड़ जाते हैं कि आप राष्ट्र को धुएँ की तरह उड़ा कर internationalism रूपी शांगरी ला के सुहाने स्वप्न संजोने लगते हैं भले ही इस चीज की कोई अंतर्राष्ट्रीय वैधानिकता हो या न हो। रामनाथ गोयनका अवार्ड समारोह में मौजूद अक्षय मुकुल के बारे में मैंने साल डेढ़ साल पहले ही पोस्ट लिख कर बताया था जब गीता प्रेस पर उसकी किताब प्री आर्डर के लिए उपलब्ध थी। मैंने चिल्ला चिल्ला कर कहा था कि यह आदमी गीता प्रेस की पुस्तकें पढ़ने वालों को militant कह रहा है इससे सावधान रहें। अब मुझे लगता है कि मैं सही जा रहा हूँ। मुझे इनका रणनीतिक कौशल समझ में आता है। मेरे लिए ये दाग अच्छे हैं।
ये सब कहने का अभिप्राय यह है बन्धुओं कि जैसे सेना में शार्ट सर्विस कमीशन अधिकारी जिनकी जॉइनिंग के वक़्त आयु सीमा 25 से ज्यादा नहीं होती वे कभी जनरल रैंक तक नहीं पहुँच सकते। जनरल तो छोड़िये फुल कर्नल कमांडिंग ऑफिसर बनने में दिक्कत होती है। टू थ्री या फोर स्टार जनरल वो बनते हैं जो साढ़े सोलह से उन्नीस की आयु सीमा में राष्ट्रीय रक्षा अकादेमी खड़कवासला के लिए चुने जाते हैं। चालीस साल की सर्विस के बाद कोई चीफ़ ऑफ़ स्टाफ बनता है। वामी बुद्धिजीवी सत्तर वर्षों से काबिज हैं। उन्हें एक चौबीस घण्टे के ब्लैकआउट से नहीं हराया जा सकता। निरन्तर लड़ने की प्रवृत्ति जागृत कीजिए। यह बहुत लम्बा युद्ध है। शत्रु को पहचानना सीखिये उसकी कलाओं का अध्ययन कीजिए। सुनत्ज़ू ने Art of War में कहा है कि यदि आप शत्रु और स्वयं दोनों को जानते हैं तो आप सौ युद्ध लड़ सकते हैं। परन्तु यदि आप शत्रु को नहीं केवल स्वयं को जानते हैं तो आपकी हर जीत हार में बदल जायेगी। अतः सजग रहें, सन्नद्ध रहें। 9 नवंबर के बाद की रणनीति के लिए तैयार रहें।
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