“ग़ालिब छुटी शराब”
हिंदी साहित्य के उज्ज्वल हस्ताक्षर श्री राजेन्द्र कालिया की एक मशहूर किताब का का शीर्षक ठीक वही है जो इस ब्लॉग/पोस्ट का है, जो ग़ालिब साहेब के मशहूर शेर का शुरुआती हिस्सा है। शेर इस प्रकार है।
‘ग़ालिब’ छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में ।
पता नही क्या सोचकर श्री राजेन्द्र कालिया ने “गालिब छुटी शराब” को अपनी किताब का शीर्षक बनाया होगा। परंतु ग़ालिब साहेब की मंशा एकदम साफ है। जरा ”छुटी शराब” पर गहराई से ध्यान दीजिए। ग़ालिब साहेब यह नही लिख रहे है “ग़ालिब छोड़ी शराब” मतलब गालिब को किसी कारण जैसे “किसी के दबाव या बीमारी या मुफलिसी के कारण” शराब छोड़ना पड़ गया हो। नही बल्कि वे लिखते है “छुटी शराब” यानी बस, यकायक, अचानक, यूं ही, छुट गयी– यानी इरादा करके नहीं छोड़ी। छुट गयी और छोड़ दी दोनों बातों में बहुत फर्क है। यानी वह शराब से तौबा कर चुके हैं और विनम्र लहजे में फरमाते हैं– ”छुटी शराब”।
शराब छुट तो गयी तो फिर “अब भी कभी-कभी” क्यों लिख दिया ग़ालिब साहेब ने? और जब लिख दिया तो उनका मतलब शीशे की तरह साफ है कि “जनाब! शराब छूटी तो ज़रूर है मगर फिर भी कभी कभी चल जाती है।” इसका मतलब यह है कि अब “जब माहौल बने, जब चांदनी रात हो, आसमान पर बादलो में लुकाछुपी करता चाँद हो, मन मे उभरते अरमान हो, कुछ भूली बिसरी याद हो, हवा चले और फिर बन्द हो जाये तो आप ही बताइए कि क्या छुट जाने के बाद ”अब भी कभी-कभी” कर के यह नामुराद शराब फिर से क्योंकर गिलास में अपने आप ना ढल जाएगी।
चलिए थोड़ी देर के लिए मान लेते है की गालिब तौबा तो कर चुके हैं। कसम भी खा चुके हैं। मगर उनको यह भी पता है कि “अगर फिर से तलब लग जाये तो…..? तो उस समय कोई ताना ना मार जाए इसलिए शब्दो के खिलाड़ी गालिब ने अपना बचाव पहले से ही कर लिया है और लिख दिया। “गालिब छुटी शराब”।
आप सोच रहे होंगे कि क्या मैं सनक गया हूँ जो गालिब जैसी शख्सियत के शेर का विश्लेषण करने लगा हूं। तौबा कीजिये साहेब। मेरी ना तो यह हैसियतना ही काबलियत। मैं ने तो गालिब साहेब के इस शेर को अपनी बात कहने का बस बहाना बनाया है। क्योंकि मैं कभी खूब लिखता था, ब्लॉग पर ब्लॉग, तकरीबन हर विषय पर। फिर फेसबूक पर आया और एक दिन में अनगिनत पोस्ट लिखने लगा। एकदम ग़ालिब के शराब-खोरी की तरह पोस्ट-खोरी करता था। दे दबा के पोस्ट पर पोस्ट।
और फिर……
और फिर एक दिन अचानक ही ग़ालिब की “छुटी शराब” की तरह “प्रदीप छुटी पोस्ट” हो गया। एकदम मन उखड़ गए। ना किसी ने मना किया, ना किसी ने धमकाया। बल्कि 180° वाले मतभेद रखने वाले मित्रो ने भी खूब सराहा और खूब खोज खबर भी ली। मगर बन “छुटी पोस्ट” हो गई।
मगर वो कहते है ना साहेब “वह मुहँ की क्या लगी जो छूट जाए”। इसका मतलब तो यह हुआ ना साहेब कि अब भी “जब माहौल बने, जब चांदनी रात हो, आसमान पर बादलो में लुकाछुपी करता चाँद हो, मन मे उभरते अरमान हो, कुछ भूली बिसरी याद हो, हवा चले या बन्द हो जाये तो क्या ”अब भी कभी-कभी” वो बातें, वो कटाक्ष, वो हंसी मजाक और वो समय के पदचाप को ध्यान से क्यों ना सुना जाए, सुनाया जाए?????
यदि मित्रगण मेरी लंतरानी फिर से पढ़ने सुनने को तैयार है तो मैं आपके सामने कुछ-कुछ फिर से रखूंगा। यदि आपकी हाँ है तो मैं फिर से हाज़िर होता हूँ अपनी उल्टी सीधी पोस्ट लेकर, उसी उम्मीद के साथ की आप अपनी सहमति और असहमति दोनो सामाजिक सभ्यता के दायरे में रखते हुए अपनी राय प्रकट करते रहेंगे।
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