संकटमोचन बड़ी बहन
मेरी दो बहन बड़ी और दो बहन छोटी है। भाई कोई नही। सबसे बड़ी बहन है “बड़ी जिया” उनको असली नाम “विजय” के साथ जिया लगाकर ना तब बुलाते थे ना ही अब। वह हमसब बच्चो की संकठमोचन है। उनकी पूरी कोशिश होती थी की हमसब अम्मा के प्रकोप से बचे रहे। अम्मा तो रही नहीं परन्तु बड़ी जिया का संकटमोचन वाला रोल आज भी चालू है| दूसरी बड़ी बहन “सुमन जिया” तब भी गऊ थी और अब भी। उनको कोई डांटता भी नही था, मारने की बात तो दूर थी। बाकी दोनों बहनें छोटी थी। उनको डांट मार की बात ही नही थी। अकेला लड़का होने के नाते बहुत शरारती था। फिर मैं अम्मा के राडार पर हमेशा रहता था। पता नही कैसे, मेरे घर घुसने से पहले, अम्मा को मेरी सारी शरारत के किस्से मालूम हो जाते थे। वैसे यह रहस्य, 44 वर्ष बाद, 2004 में जा कर खुला। यह किस्सा फिर कभी।
1957-58: लखनऊ में अशरफाबाद– उनदिनों कनकौवे और कबूतर उड़ाने का रिवाज़ था। मगर मुझ बच्चे को कबूतर पालने और उड़ाने की इजाज़त नही थी। हाँ पतंग की डोर लपेटने और पतंग लूटने की इजाज़त थी|
शायद दूसरी या तीसरी में पढता रहा होऊंगा। दोपहर को दूसरी मंजिल के मुरेड पर दो कबूतर दिखाई दिए। छत पर जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ी ही थी। परंतु वह केवल काम पड़ने ओर लगती थी। कबूतर देख कुछ ऐसा ताव चढ़ा की, तुलसीदास को पिछड़ते हुए, बारी(दीवार से निकली िनत) पकड़, बमुश्किल तमाम, जान खेल, चढ़ना था सो चढ़ गया।
मैंने सोचा था कि कबूतर मेरी बहादुरी पर मुग्ध हो ताली बजाते मुरेडी पर विराजे रहेंगे। मगर वे तो मेरे आधे रास्ते पहुचने से पहले उड़नछू हो गए।
इसबीच अम्मा को मेरी बहादुरी की खबर लग गई। वे हाथ में बेंत ले नीचे खड़ी हो गई और मुझे नीचे आने के लिए बोली। मैंने कहा कि आप मारेंगी। अम्मा बोली बिलकुल नही, बस धीरे से नीचे आ जाओ। मुझे उस समय उनकी नियत मालूम थी। अम्मा के आँखों में तैमूर का खून तैर रहा था। और यह ठीक भी था क्योंकि मेरे कारण उनको सारे मोहल्ले की शिकायत सुनानी पड़ती थी।
अम्मा जितना जोर से नीचे आने को कहती मैं उतना ऊपर चढ़ जाता। आखिर अम्मा ने खादिम को सीढ़ी लगाने का आदेश दिया। अब मुझे पूरा अंदाज़ हो गया की आज मेरे साथ क्या होने वाला था। नीचे अम्मा के साथ मेरी बड़ी बहन भी खडी थी। मेरी आँख उनसे मिली और मैं फटाक से छत पर चढ़ बगल के शहतूत के पेड़ पर छलांग मार गया। नीचे से अम्मा की आवाज आई, “ये यो आज मर गया” आखिर माँ थी और 6-7 साल का लड़का दूसरी मंजिल से नीचे कूद गया था। शहतूत के डाली कमज़ोर होती है। यह तो पक्का था कि कुछ हड्डी तो ज़रूर टूटेगी।
मगर तभी करिश्मे की तरह, मेरे बड़ी जिया भागती हुयी आई और डाली को तोड़ते हुए, ज़मीन पर गिरते मेरे शरीर को अपने शरीर पर ले लिया। मेरी हड्डी तो बच गई मगर जिया को कुछ चोट ज़रूर आयी। बड़ी जिया की ये चोट तो कुछ भी नही थी क्योंकि अभी अम्मा का प्रकोप उनपर होने वाला था। पीछे पीछे अम्मा भी अपनी बेंत हिलाते पहुच गई और मुझे सलामत पा मेरे ऊपर झपटी।
बड़ी जिया बीच में आ गई और बोली “अम्मा, अवधेश(मेरे घर का नाम) अपने मन से ऊपर नही चढ़ा था। मेरी चुन्नी उड़ कर ऊपर चली गई थी। उसी को उतारने के लिए मैं उसे ऊपर चढ़ने के लिए कहा था।”
इतना सुनते ही अम्मा का पारा 100 से ऊपर छलांग मार गया और उन्होंने बड़ी जिया को वही सबके सामने सूतना शुरू कर दिया। और मेरी संकटमोचन जिया चुपचाप रोती रही और मार खाती रही|
बड़ी जिया। मैं तुम्हरा अपराधी हूँ कि तुमने मुझे बचा कर खुद मार खाया मगर मैं कायर की तरह तुमको पीटते देखता है।
जिया.. We all love you very much….
(#यादों_के_झरोखे_से)
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Sisters are best , most trustworthy and worth worshipping ,any which day. World across. Regards.